गुरुवर्य श्री विश्वनाथ शास्त्री (अभिनव धन्वंतरी)

“संस्कृति आर्य गुरुकुलम्” के संस्थापक पूज्य गुरुवर्य श्री विश्वनाथ शास्त्री यानि “अभिनव धन्वंतरी” के विराट व्यक्तित्व का कुछ चंद शब्दों में परिचय देना, यू तो गागर में सागर समाने जितना ही एक कठिन कार्य है । लेकिन, फिर भी यहां पर उसे सार्थक करने का प्रयास किया गया है।

जन्म और बचपन

          परम पूज्य विश्वनाथ शास्त्री यानि दातार गुरूजी का जन्म, ई.स. 1922 में विद्यानगरी वाराणसी (काशी) में हुआ था और उनका बचपन भी आध्यात्मिक एवं पवित्र नगरी वाराणसी में ही गुजरा था । वे जन्म से ही अत्यंत मेधावी व कुशाग्र बुद्धि के धनी थे।

शिक्षा और अध्ययन

          सबसे पहले उन्होंने “वेदांग पाठशाला” में संस्कृत, पाणिनीय व्याकरण और वेद की प्रारंभिक पढाई पूर्ण की और उसके बाद उन्होंने दर्शनशास्त्र के प्राणस्वरूप पूज्य राजराजेश्वर शास्त्रीजी एवं महाचार्यजी जैसे दिग्गज विद्वानों से वर्षों तक दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया।

          दर्शनशास्त्र के अध्ययन के बाद, उन्होंने सुप्रसिद्ध रसवैद्य एवं चिकित्सक माननीय त्र्यंबक शास्त्रीजी से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की और रसशास्त्र के साथ-साथ आयुर्वेद की तमाम संहिता का गहन अभ्यास करके, आयुर्वेद के सभी अंगों पर कार्य दक्षता हासिल की।

          आयुर्वेद के अध्ययन के बाद, वाराणसी के सुप्रसिद्ध विद्वान गोपीनाथ कविराज से, उन्होंने तंत्र, ज्योतिषविद्या, खगोल, मंत्रशास्त्र जैसे गहन विषयों का संवाद पद्धति से अध्ययन किया और अनेक प्रकार की साधनाओं से आत्मा को भावित किया।

          उसके बाद उन्होंने सुप्रसिद्ध अध्यात्मविद्द, तपस्वी, परिव्राजक ब्रह्मवेदान्तिजी से वेदांत, उपनिषद, आरण्यक एवं अध्यात्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया और आध्यात्मिक अनुभव हेतु हिमालय, ऋषिकेश जैसे पवित्र स्थानों की अनेक यात्राए की।

यात्रा और प्रवास

          अध्ययन के बाद शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज का परीक्षण और निरिक्षण करने के लिए, उन्होंने समग्र भारत में ३ बार यात्रा की । इस यात्रा-प्रवास के दौरान उन्होंने अनेक स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी और विकलांग घर एवं वृद्धाश्रमों को देखा ।

          “विद्या दान को श्रेष्ठ दान” मानने वाले इस देश में डोनेशन के नाम पर, विद्या का चीरहरण करने वाले, दु:शासन रूपी शैक्षणिक संस्थाओं को देखा । उन्होंने भारतवर्ष में विद्या की ओर पीठ करते हुए विद्यापीठों को देखा, जहाँ युनिवर्स का कोई विचार नहीं हैं ऐसी युनिवर्सिटीस् को देखा और विद्यालय के स्थान पर वेश्यालय बन चुके स्कूलस्, कॉलेज और क्लासिस को भी देखा ।

          फिर, उन्होंने वहाँ पढ़ती तेजहीन, लक्ष्यहीन, साहसहीन, सेवा भावना रहित, दुराचारी व भोगवादी युवा पीढ़ी को देखा और उससे निर्मित लोभी, लालची, अत्याचारी, भ्रष्टाचारी व नीतिमत्ता से विमुख व्यक्तिओं भी देखा । एवं माता-पिता के एक वचन के लिए सबकुछ त्याग कर वन चले जाने वाले श्री राम के इस देश में, उन्होंने लोगों ने वृद्धाश्रमो में तरछोडे हुए अनेक वृद्ध माता-पिता को भी देखा ।

          जहाँ चिकित्सा को श्रेष्ठ कर्म और वैद्य (डोक्टर्स) को भगवान का रूप माना जाता है, उसी देश में जीवन-मरण के बीच में जूझ रहे व्यक्ति की चिकित्सा करने की जगह, भावशून्य होकर पहले पैसो की डील करके, चिकित्सा के नाम पर लोगों की जीवनभर की सेविंग हड़पने वाले अनेक हॉस्पिटल्स और चंद पैसों की खातिर गर्भपात जैसा महापाप करने के लिए तैयार यम के दूत रूपी अनेक डॉक्टर्स को भी देखा ।

          एक जमाने में जिस देश की शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज व्यवस्था का पूरे विश्व में डंका बजता था, उसी देश की शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज की वर्तमान स्थिति देखकर, गुरूजी को अत्यंत दुःख हुआ और उन्होंने इसमें सुधार करने का दृढ संकल्प किया ।

गुरुकुल की स्थापना

          शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज व्यवस्था को पुन:स्थापित करने के लिए, गुरूजीने बहुत ही सोच-विचार किया और अंत में यह निष्कर्ष पर पहोंचे की, “शिक्षा के बिना समाज का किसी भी तरह का और किसी भी प्रकार से विकास हो ही नहीं सकता है ।” इस सत्य का स्वीकार करके उन्होंने मनुष्य के निर्माण का सर्वोच्च और सर्वोत्तम मार्ग गुरुकुल शिक्षा को चुना और 1970 में “संस्कृति आर्य गुरूकुलम्” की स्थापना की ।

          फिर, शास्त्र-संसोधन के द्वारा 100 से भी ज्यादा जीवनपयोगी विषयों का पुन:संकलन किया और

  • सुवर्णप्राशनम्

  • गर्भविज्ञान

  • गर्भसंस्कार

  • दशगव्य आयुर्वेद

  • दैवव्यपाश्रय चिकित्सा

  • चाणक्य अर्थशास्त्र

  • पंचकोश विकास

  • वैदिक पेरेंटिंग

  • वैदिक कृषि

  • लघु गुरुकुलम्

  • बालशाला

  • यथार्थ रामायण

  • भगवद् गीता

          जैसे अनेक प्रकल्प दिये ।

          इस प्रकार, उन्होंने अपना पूरा जीवन इस कार्य में समर्पित कर दिया और गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के ऊपर 60 वर्षों तक अविरत रूप से कार्य किया तथा एक आदर्श “आचार्य केंद्रित गुरुकुल” की स्थापना करके, मेहुलभाई जैसे विद्वान शिष्यो को भी तैयार किया ।

अवार्ड और उपलब्धि

          परम पूज्य विश्वनाथ शास्त्री यानि दातार गुरूजी को अपने जीवनकाल के दौरान विद्याभूषण, महामहोपाध्याय, वेद पंडित, सेवारत्न जैसे अनेक पुरस्कार मिले । जिसमें राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति सन्मान भी शामिल है । जिसकी संक्षिप्त सूचि निम्नलिखित है ।

  • सन् 1984 में उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ द्वारा “वेद पंडित पुरस्कार

  • सन् 1990 में सुवर्णप्राशन तथा शास्त्र संशोधन हेतु “राष्ट्रपति पुरस्कार

  • सन् 1994 में लाल बहादुर राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ द्वारा “महामहोपाध्याय” की उपाधि

  • सन् 2001 में दैवव्यपाश्रय चिकित्सा पुनरुत्थान हेतु “पौरोहित्य कर्मकांड पुरस्कार

  • सन् 2002 में यथार्थ रामायण का चित्रण करने हेतु “महर्षि वाल्मीकि पुरस्कार

  • सन् 2004 में गर्भसंस्कार तथा शास्त्र संशोधन हेतु “उपराष्ट्रपति सन्मान

          इसके उपरांत गुरूजी को समाज कल्याण के उत्कृष्ट कार्यो के बदले में काशी के महाराजा द्वारा “सेवारत्न पुस्कार” मिल चूका है और आयुर्वेद के क्षेत्र में दिए हुए अमूल्य प्रदान के बदले में, उन्हें “अभिनव धन्वंतरी” के नाम से भी जाना जाता था ।